Book Review: कुमार गंधर्व ने शास्त्रीय संगीत परंपरा से थोड़ा विद्रोह किया और प्रयोग भी!
Book Review: कुमार गंधर्व ने शास्त्रीय संगीत परंपरा से थोड़ा विद्रोह किया और प्रयोग भी!
8 अप्रैल, 1924 को कर्नाटक के बेलगाम के पास सुलभावी में जन्मे शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकली को 1933 में 9 साल की आयु में कुमार गंधर्व की उपाधि मिली थी. वर्ष 1935 में 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने इलाहाबाद में अखिल भारतीय संगीत सभा में अपनी पहली प्रस्तुति दी. वर्ष 1936-47 तक वे देवधर जी से और अंजनी भाई मालपेकर से संगीत सीखते रहे.
(विमल कुमार/ Vimal Kumar)
भारतीय शास्त्रीय संगीत की वर्षों पुरानी एक लंबी परंपरा रही है और उसका समृद्ध इतिहास रहा है जिसमें तानसेन से लेकर बैजू बावरा और आधुनिक काल में पंडित दिगंबर पलुस्कर, बीआर देवधर, फैयाज खां, अब्दुल करीम खान, ओंकार नाथ ठाकुर, विनायक राव पटवर्धन जैसे महान गायक हुए तो बीसवीं सदी में बड़े गुलाम अली खां और आमिर खान जैसे भी सिद्धहस्त गायक हुए. पंडित कुमार गंधर्व भी इसी परंपरा और इतिहास की एक महान हस्ती थे. बस फर्क यह था कि उन्होंने इस परंपरा से थोड़ा विद्रोह किया था और प्रयोग भी किया था.
कुमार गंधर्व ने संगीत की दुनिया में प्रश्न किए, चिंतन किया. यह सच है कि उनका कोई घराना नहीं बना लेकिन उन्होंने शास्त्री गायकी में लोक तत्वों को समाहित किया और भजन गायकी को शास्त्री गायकी से जोड़कर एक नई विधा ही विकसित की. दरअसल उन्होंने संगीत की दुनिया में नवाचार किया.
कला की दुनिया में जब कोई नवाचार करता है तो उसे अपनी ही दुनिया के लोगों से विरोध का सामना करना पड़ता है क्योंकि उसके नवाचार को सहज भाव से स्वीकृति नहीं मिलती. कलाकार को बहुत लंबा संघर्ष करना पड़ता है. हिंदी की दुनिया में जब महाप्राण निराला ने “जूही की कली” कविता लिखी तो उनके मुक्त छंद का उपहास किया गया. अज्ञेय ने जब प्रयोगवांद शुरू किया तो उस जमाने के परंपरावादी आलोचकों ने उसका स्वागत नहीं किया था. मुक्तिबोध को भी कविता में नया सौंदर्यशास्त्र रचने के लिए शुरू में स्वीकारा नहीं गया.
शिवपुत्र सिद्धरमैया कोमकली उर्फ पंडित कुमार गंधर्व ने जब शास्त्रीय संगीत की दुनिया में अपने गायन में नया प्रयोग किया तो उनका नवाचार लोगों को पसंद नहीं आया. उनके बारे में यहां तक आरोप लगा कि उन्होंने शास्त्रीय संगीत की बैंड बजा दी है. संगीतविद पंडित कुमार गंधर्व को शास्त्रीय गायक मानने को तैयार नहीं थे लेकिन कालांतर में पंडित कुमार गंधर्व एक बड़े गायक के रूप में स्थापित हुए. वे मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमशेन जोशी के साथ एक त्रयी के रूप में जाने गए और उनका नाम आदर से लिया जाने लगा. वे पद्म विभूषण से भी सम्मानित हुए.
हिंदी के प्रसिद्ध लेखक एवं कवि ध्रुव शुक्ल ने कुमार गंधर्व की एक बहुत ही सुंदर और महत्वपूर्ण जीवनी लिखी है. इस जीवनी को ‘रज़ा फाउंडेशन जीवनी माला’ के तहत प्रकाशित किया गया है. करीब 200 पृष्ठों में प्रकाशित इस जीवनी में ध्रुव शुक्ल ने कुमार गंधर्व के संघर्ष भरे जीवन से लेकर उनकी गायकी की विशेषताओं और उनके नवाचार विवेचन किया है.
कुमार गंधर्व का विवाह 24 अप्रैल, 1947 को भानुमति से हुआ था लेकिन विवाह के कुछ दिन बाद ही उन्हें तपेदिक हो. तब यह जानलेवा बीमारी थी और 30 जनवरी, 1948 को स्वास्थ्य लाभ के लिए वे देवास में बस गए. वर्ष 1952 में कुमार गंधर्व स्वस्थ हुए और उस साल 15 सितंबर को पंडित जवाहरलाल नेहरु के समक्ष मांडू में संगीत प्रस्तुति दी थी.
दिलचस्प बात यह है कि गत दिनों इस पुस्तक पर आयोजित परिचर्चा में वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने कहा कि “ध्रुव शुक्ल को संगीत की कोई जानकारी नहीं थी लेकिन उन्हें मैंने ठेल ठाल कर संगीत की तरफ मोड़ा और उन्हें अलाउद्दीन खान अकादमी का प्रकाशनाधिकारी बना दिया.”
इसका नतीजा यह हुआ कि ध्रुव शुक्ल के भीतर संगीत के प्रति गहरी दिलचस्पी पैदा हुई और वे संगीत के मर्मज्ञ बन गए. इसका सबूत उनकी कुमार गंधर्व पर लिखी गई जीवनी है.
उस्ताद अमीर खान के शिष्य एवं प्रसिद्ध संगीत विशेषज्ञ राजीव बोरा का मानना कि इस किताब को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि यह पुस्तक ऐसे व्यक्ति ने लिखी है जिसे संगीत के बारे में कोई जानकारी नहीं थी बल्कि इस जीवनी को पढ़ने से यह पता चलता है इसका लेखक संगीत की दुनिया में रचा बसा है और उसकी बारीकियों को बखूबी समझता है.
यूं तो हिंदी में शास्त्रीय संगीतकारों के बारे में जीवनियां नहीं हैं. ऐसे में यह जीवनी हिंदी की दुनिया को समृद्ध करती है. ध्रुव शुक्ल ने पुस्तक के प्रारंभ में ही लिखा है- कभी कोई जीवनी पूरी नहीं लिखी जा सकती. फिर एक संगीतकार की जीवनी कैसे लिखी जा सकती है, जिसे हर राग में बार-बार जन्म लेना पड़ता है. एक छोटी-सी जीवनी में इतने सारे जन्मों की कथा कैसे समा सकती है और जीवनी गा भी तो नहीं सकती.
वे लिखते हैं- “अपने जीवन में कोई संगीतकार पूरा राग कभी नहीं गा पाता. वह हर राग के एक अंश को ही नये रूप में बार-बार गाता है. हर बार किसी राग में उसका प्रवेश ख़ाली हाथ लौटने जैसा है. क्या इस खाली हाथ लौटने को संगीतकार की मृत्यु कह सकते हैं और फिर उसी राग में दोबारा प्रवेश को संगीतकार का जन्म? लगता है कुमार गन्धर्व एक ही जन्म में कई जन्म लेते रहे.”
ध्रुव शुक्ल ने हाल ही में एक समारोह में कहा था कि पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक पढ़कर उन्होंने कबीर को समझा था. लेकिन कबीर को पूरा तब उन्होंने समझा जब कबीर के पदों को कुमार गंधर्व की आवाज़ में सुना. बिना कुमार गंधर्व को सुने कबीर को पूरी तरह समझा जाना नहीं जा सकता.
ध्रुव शुक्ल का आशय शायद यह था कि एक तरह से कुमार गंधर्व ने कबीर का सांगीतिक पाठ किया. यह शब्दों के टेक्स्ट से अलग म्यूजिक का टेक्स्ट है.
अशोक वाजपेयी ने इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखा है तो ध्रुव शुक्ल ने 17 पन्नों की भूमिका लिखी है. भूमिका में उन्होंने प्रख्यात संगीत समीक्षा राघव मेनन को उधृत करते हुए लिखा है- जिस तरह हम संसार के इतिहास को ईसा से पहले और ईसा के बाद पढ़ते हैं उसी तरह भारतीय शास्त्रीय संगीत का इतिहास ‘कुमार गंधर्व से पहले’ और ‘कुमार गंधर्व के बाद’ पढ़ा जाएगा.
राघव मेनन के इस कथन से पंडित कुमार गंधर्व के महती योगदान को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि किस तरह कुमार गंधर्व ने अपनी गायकी से भारतीय शास्त्रीय संगीत गायकी के शिल्प और मुहावरे को बदलने का प्रयास किया.यह संगीत की दुनिया में एक युगान्तकारी घटना थी.
अशोक वाजपेयी ने पुस्तक के आमुख में लिखा है- “कुमार गंधर्व एक प्रश्नवाचक संगीतकार थे. उनके चिन्तन और संगीत में गहरी प्रश्नाकुलता है. उनमें जिज्ञासा और विनय भरपूर हैं पर प्रश्नाकुलता भी. यह प्रश्नवाचकता कई बार उन्हें विवादग्रस्त भी करती रही पर वे अपने विचार को दृढ़ता और सांगीतिक प्रमाण के साथ प्रस्तुत करने से कभी डिगे नहीं. उनकी कल्पनाशील निर्भीकता अनोखी थी. वे शास्त्रीय संगीत के भारतीय इतिहास में पहले शास्त्रीय गायक हैं जिन्होंने मालवी लोकसंगीत की पूरी संगीत सभा प्रस्तुत की. उन्होंने लोकसंगीत के साथ शास्त्रीय संगीत के बिछड़ने को दूर करने की अथक सर्जनात्मक चेष्टा की और ऐसा करके लोक को शास्त्र जैसा सम्मान दिया, कभी उसे शास्त्र का ग़रीब बिरादर नहीं माना. शायद किसी और संगीतकार से कहीं अधिक कुमार जी ने हमें अपनी परंपरा की आधुनिकता उसकी आधुनिक संभावनाओं का दर्शन कराया. पिष्टपेषण और रूढ़िग्रस्तता से मुक्त उनकी परंपरा की समझ और उस पर उनकी सर्जनात्मक आस्था उन्हें बीसवीं सदी के उन विरले मूर्धन्यों में से एक बनाती है जिन्होंने हमारे लोकतांत्रिक भारतीय संस्कृति बोध को रूपायित किया है.”
ध्रुव शुक्ल ने पंडित कुमार गंधर्व की जीवनी को चार कथाओं में विभक्त किया है. पहली कथा जन्म कथा है तो दूसरी संस्कार कथा तीसरी साधन कथा और चौथी साध्य कथा है.
किताब में मशहूर पत्रकार राहुल बारपुते, अनोखे चित्रकार विष्णु चिंचालकर, प्रथम पत्नी भानुमति, दूसरी पत्नी तथा गायिका वसुंधरा श्रीखंडे, बड़े पुत्र मुकुल शिवपुत्र के अलावा यशस्वी लेखक रघुवीर सहाय. कुंवर नारायण आदि के कुमार गंधर्व के बारे में विचारों से भी उनकी गायकी और उनके व्यक्तित्व को समझने की कोशिश की गई है. इसके साथ ही पंडित रविशंकर तथा अन्य कलाकारों और संगीत विषेशज्ञों के विचारों से भी कुमार गंधर्व का उचित मूल्यांकन किया गया है. इस तरह से ध्रुव शुक्ल ने काफी मेहनत से यह किताब लिखी है और बीच-बीच में स्वर, राग, ताल, अलाप, साधना आदि के बारे में कुमार गंधर्व के विचारों को भी व्यक्त किया गया है और इसके जरिये भी उनकी गायकी को विश्लेषित किया गया है.
इस किताब में कुमार गंधर्व की बीमारी और उनकी पहली पत्नी भानुमति का एक मार्मिक प्रसंग भी है. कुमार गंधर्व की सफलता में उनकी दोनों पत्नियों का बड़ा योगदान है.
किताब में जे. स्वामीनाथन और अशोक वजपायी की कुमार गन्धर्व पर लिखी कविता भी है. इन दो कविताओं से भी इस गायक को जाना जा सकता है.
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Tags: Books, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature, MusicFIRST PUBLISHED : May 26, 2023, 13:50 IST Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed